चित्तौड़गढ़ किला - गढ़ तो चित्तौड़गढ़ और सब गढ़ैया


यदि कोई भी इन्सान पुरे भारत का  भ्रमण करने निकले तो उसे जाने अंजाने में कितने ही राज  हासिल होंगे जो बहुत ही हैरान करने वाले होंगे । पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण 29 राज्य में फैला हुआ भारत जिसके अलग – अलग क्षेत्र में कई दिलचस्प कहानिया आपने अंदर छुपाए रखा हैं । उनमे से चित्तौड़गढ़ किला का इतिहास ।


राजस्थान में एक चित्तौड़गढ़  नाम का शहर है। यह शहर शूरवीरों का शहर है जो एक ऊची पहाड़ी जिसकी लगभग ऊचाई 500 फुट पर बने दुर्ग के लिए प्रसिद्ध है। चित्तौड़गढ़ का किला भारत के मशहूर व् प्राचीन किलो में से एक है यहाँ हर साल हजारो पर्यटक घुमने आते है । चित्तौड़गढ़ किला का इतिहास भी बड़ा हैरान करने वाला हैं ।  कहा जाता है की सर्वप्रथम यह किला चित्रागंद मोरी ने बनाया था । कुछ समय बाद इस किले को करीब आठवी शताब्दी में गुहिलवशी बापा ने इसे हस्तगत करवाया  कुछ समय तक यह किला आनेक परमारों, चोहानो और सोलंकियो के राज में रहा । लेकिन उदयपुर राज्य का विलय सन ( 1175 ) ई.  राजस्थान में होने तक यह किला गुहिलवशी के हाथ में ही रहा । यह किला एक वर्ल्ड हेरिटेज साईट भी है । चित्तौड़गढ़ की इतिहास और  प्राचीनता का पता लगाना कठिन कार्य है,                                          
किंतु माना जाता है कि महाभारत काल के समय महाबली भीम ने खजाने  के रहस्यों को समझने के लिए भारत का दौरा शुरा किया और तब उन्हें रास्ता में एक पंडित जी मिले उनके हाथ में एक  पाराश पत्थर था तब भीम ने सोचा अगर वो पारस पत्थर उसे मिल जाये तो उसकी खजाने की खोज पूरी हो जाएगी । तब महाबली भीम ने पंडित से पाराश पत्थर देना को कहा लेकिन पंडित जी वो पत्थर देना नहीं चाहते थे तब उन्होंने भीम से एक शर्त रखी वो उन्हें एक सबसे ऊची पहाड़ी पर सबसे विशाल  एक महल बना के दे । लेकिन पंडित बहुत होसियार था उसने इसमें भी एक शर्त रख दी कि महल महाबली भीम को एक रात में ही तैयार करके देना होगा फिर भीम ने अपने चारो भाइयो के साथ मिलाकर महल बनाना शुरू कर दिया सब भाई जी जान से महल बनाने में लगे थे । महल लगभग पूरा हो गया था बस एक तरफ से थोडा सा काम रह गया था ऐसा महल को बनता देख पंडित जी को लगा 5 भाई  महल को पूरा बना के दे देंगे लेकिन  पंडित जी पत्थर देना नहीं चाहते थे तब पंडित जी फिर चतुराई से कम लिया तब पंडित जी ने किसी से कहा तुम जाकर मुर्गे की तरह बाग़ दो उस समय मुर्गे के बांग देना को ही सुबह होने का समय माना जाता था । किंतु महाबली भीम  समस्त प्रक्रिया को पूरी करने से पहले अधीर होकर वह अपना लक्ष्य नहीं पा सका तब उन्हें बहुत ज्यादा गुसा आ गया  और प्रचंड गुस्से में आकर भीम ने अपना पांव जोर से जमीन पर मारा जिससे वहां पानी का स्रोत फूट पड़ा, पानी का यह कुंड भीम ताल कहा जाता है। ये कुंड आज भी चित्तौड़गढ़ किले में स्थित  है ।
बाद में यह स्थान मूरी अथवा मौर्य राजपूतों के अधीन आ गया, इसमें अलग – अलग लोगो की  भिन्न-भिन्न राय हैं कि यह मेवाड़ शासकों के अधीन कब आया, किंतु 1568 तक राजधानी को उदयपुर ले जाने से पहले चित्तौड़गढ़ मेवाड़ की राजधानी रहा। इस किले पर बहुत सारे राजशाही  राजपूतों ने बहुत समय तक  राज किया यह माना जाता है बप्पा रावल  जो की एक  गुलिया वंशी राजा थे  उन्होंने  8वीं शताब्दी के मध्य में अंतिम सोलंकी राजकुमारी से विवाह करने पर चित्तौढ़ को दहेज के एक भाग के रूप में प्राप्त किया था, बाद में गुलिया वंशी के  वंशजों ने मेवाड़ पर शासन किया जो 16वीं शताब्दी तक अजमेर से गुजरात तक फैल चुका था। राजा खिलजी ने 1303 में महाराजा राना रतन सिंह को युद्ध  में पराजित कर दिया और बाद में अकबर ने 1567 में महाराजा महाराणा सिंह दूसरी बार किया था । लेकिन दोनों बार ही राजपूत सेनाओ ने मुगलों की सेनाओ की संख्या ज्यादा होने के बाद भी युद्ध  में उनके सामने घुटने नहीं टेके उनके सेनाओ के हमले जवाब मुहतोड़ दिया । चित्तौड़गढ़ किले में खिलजी के साथ यौध में हराने से रानी पदमावती के साथ  16000 से भी ज्यादा महिलाओ ने आपनी खुद की मर्जी से जोहर कर लिया सबसे पहले जोहर रानी पदमावती ने किया  । रानी पदमावती ने आपनी आन और सम्मान की रक्षा करने के जोहर कर लिया इसलिए खिलजी राणा रतन सिंह के साथ युद्ध में जित कर भी हार गया । इस जोहर की वजह से रानी पदमावती को सम्मान के साथ याद किया जाता है ।
      
अजमेर से खंडवा जाने वाली ट्रेन के द्वारा रास्ते के बीच स्थित चित्तौरगढ़ जंक्शन से करीब २ मील उत्तर-पूर्व की ओर एक अलग पहाड़ी पर भारत का गौरव, राजपूताने का सुप्रसिद्ध चित्तौड़गढ़ का किला बना हुआ है। समुद्र तल से १३३८ फीट ऊँची भूमि पर स्थित ५०० फीट ऊँची एक विशाल ह्मवेल आकार में, पहाड़ी पर निर्मित्त इसका दुर्ग लगभग ३ मील लंबा और आधे मील तक चौड़ा है। पहाड़ी का घेरा करीब ८ मील का है तथा यह कुल ६०९ एकड़ भूमि पर बसा है।

चित्तौड़गढ़, वह वीरभूमि है, जिसने समूचे भारत के सम्मुख शौर्य, देशभक्ति एवं बलिदान का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। यहाँ के असंख्य राजपूत वीरों ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए असिधारारुपी तीर्थ में स्नान किया। वहीं राजपूत वीरांगनाओं ने कई अवसर पर अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने बाल-बच्चों सहित जौहर की अग्नि में प्रवेश कर आदर्श उपस्थित किये। इन स्वाभिमानी देशप्रेमी योद्धाओं से भरी पड़ी यह भूमि पूरे भारत वर्ष के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर रह गयी है। यहाँ का कण-कण हममें देशप्रेम की लहर पैदा करता है। यहाँ की हर एक इमारतें हमें एकता का संकेत देती हैं।


रानी पद्मिनी का महल - [संपादित करे]


रावल रत्नसिंह की रानी पद्मिनी के महल चौगान के निकट ही एक झील के किनारे बने हुए हैं। पानी के बीच एक छोटा महल में भी बना है, जिसे  जनाना महल कहा जाता है व किनारे के महल को मरदाने महल कहा जाता हैं। मरदाना महल में कई सारे कमरे है जिसमे एक कमरे में एक विशाल दपंण है उस दपंण को इस तरह से लगाया गया है कि यहाँ से झील के मध्य बने जनाना महल की सीढियों पर खड़े किसी भी व्यक्ति का स्पष्ट प्रतिबिंब दपंण में नजर आता है, परंतु पीछे मुड़कर देखने पर जनाना महल की सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति को नहीं देखा जा सकता। संभवतः अलाउद्दीन खिलजी ने  दपंण वाले कमरे में खड़े होकर रानी पद्मिनी का प्रतिबिंब देखा था।

*वीर गोरा -बादल की घुमरें  [संपादित करे]

दो गुम्बदाकार इमारतें हैं जो की पद्मिनी महल से दक्षिण-पूर्व में स्थित हैं, जिसे लोग वीर और साहसी गोरा और बादल के महल के रूप में जानते हैं। गोरा और बादल जिसमे गोरा महारानी पद्मिनी का चाचा था तथा और बादल चचेरा भाई था। जो की रावल रत्नसिंह को बाचने और अलाउद्दीन के खेमे से बहार निकालने के बाद युद्ध में गोरा पाडन पोल के पास  वीरगति को प्राप्त हो गये और १२ वर्ष की अल्पायु में ही बादल युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गया था। देखने में ये इमारत इतने सालो पुराने नहीं मालूम पड़ती है । इनकी निर्माण और बनावट शैली भी कुछ अलग है ।


राव रणमल की हवेली - [संपादित करे]

एक विशाल हवेली के खण्डहर नजर आते हैं जो की गोरा बादल की गुम्बजों से कुछ ही आगे सड़क के पश्चिम की ओर स्थित हैं ।  राव रणमल की हवेली नाम से जाना जाता हैं। महाराणा लाखा का विवाह राव रणमल की बहन हंसाबाई से हुआ था। महाराणा मोकल हँसा बाई से लाखा के पुत्र थे।

खातन रानी का महल  - [संपादित करे]

एक पुराने महल के खण्डहर हैं, जो की पद्मिनी महल के तालाब के दक्षिणी किनारे पर स्थित हैं  जो महल खातन रानी महल के नाम से जाना जाते हैं । अपनी रुपवती उपपत्नी खातन रानी के लिए यह महल महाराणा क्षेत्र सिंह ने यादगार के रूप में बनवाया था। इसी रानी से महाराजा क्षेत्र सिंह को चाचा तथा मेरा नाम के दो पुत्र थे, जिसने सन् १४३३ में महाराणा मोकल की हत्या कर दी थी।

कीर्तिस्तम्भ (विजय स्तम्भ, जय स्तम्भ  - )संपादित करे]

विजय स्तम्भ

यह कीर्तिस्तम्भ प्रथम बार महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी को सन् १४४० ई. (वि. सं. १४९७) में परास्त कर उसकी यादगार में इष्टदेव विष्णु के निमित्त यह कीर्तिस्तम्भ बनवाया था। इसकी प्राण और प्रतिष्ठा सन् १४४८ ई. (वि॰सं॰ १५०५) में हुई। यह कीर्तिस्तम्भ वास्तुकला की दृष्टि से अपने आप ऊपरी मंजिल पर झरोखा होने से इसके भीतरी भाग में भी हर समय प्रकाश रहता है। इसमें विष्णु के विभिन्न रुपों को दर्शाया गया हैं, जैसे की जनार्दन, अनन्त आदि, उनके अवतारों तथा ब्रम्हा, शिव, भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं, अर्धनारीश्वर (आधा शरीर पार्वती और आधा शरीर शिव का), लक्ष्मीनारायण उमामहेश्वर, , ब्रम्हासावित्री, हरिहर (आधा शरीर विष्णु और आधा शरीर शिव का), हरिहर पितामह (ब्रम्हा, विष्णु तथा महेश तीनों एक ही मूर्ति में), ॠतु, आयुध (शस्र), दिक्पाल तथा रामायण तथा इस कीर्तिस्तम्भ में  महाभारत के पात्रों की सैकड़ों मूर्तियाँ खुदी हैं। प्रत्येक मूर्ति के निचे या उपर  उनका नाम का भी खुदाई के रूप में उल्लेख किया हुआ हैं । इस प्रकार प्राचीन मूर्तियों के विभिन्न भंगिमाओं का विश्लेषण के लिए कीर्तिस्तम्भ भवन एक अपूर्व साधन है। जो की विभिन्न मूर्तियों का समागम अपने अंदर लिए हुआ हैं । उसमे से कुछ चित्र ऐसे भी है, जो की  देश की भौगोलिक विचित्रताओं को भी उत्कीर्ण किया गया है। विजय स्तम्भ या कीर्तिस्तम्भ के ऊपरी मंजिल से दुर्ग एवं निकटवर्ती क्षेत्रों का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। महाराणा स्वरुप सिंह ने बिजली गिरने से एक बार इसके ऊपर की छत्री टूट गई थी, जिसकी मरमत महाराज ने करवाई थी  


मीराँबाई का मंदिर  -  [संपादित करे]



 मीराबाई, जो की एक राजपूत राजकुमारी थी, मीराबाई का मंदिर कुंभ श्याम के मंदिर के प्रांगण में ही एक छोटा मंदिर है, जिसे कृष्ण दीवानी भांतिमति मीराँबाई का मंदिर कहते हैं। मीरा बाई का मंदिर राजपुताना शेली का वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है । कुछ इतिहासकारों का मानना यह हैं कि पहले यह मंदिर ही कुंभ श्याम का मंदिर था, लेकिन बाद में लोगो ने एक बड़े मंदिर का निर्माण कर उसमें नई कुंभास्वामी की प्रतिमा स्थापित हो जाने के कारण उसे कुंभश्याम का मंदिर जानने लगे और यह मंदिर मीराँबाई का मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जिस मीराबाई ने अपने सारे राजसी सुखो को छोडकर अपना सारा जीवन भगवान श्री कृष्णा की भक्ति में लगा दिया । मीराबाई मंदिर के निज भाग में व उसके आराध्य मुरलीधर श्रीकृष्ण व भांतिमति मीरा का सुंदर चित्र है। जो की उस मंदिर की सुन्दरता में चार चाँद लगा देता है, मीराबाई मंदिर के सामने ही एक छोटी-सी और सुंदर सी छतरी बनी है। यहाँ मीराबाई के जो उनके गुरु थे उनकी गुरु स्वामी रैदास के चरणचिंह (पगलिये) अंकित हैं।

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