असीरगढ़ का किला – भगवान श्रीकृष्ण के श्राप के कारण यहां आज भी भटकते हैं अश्वत्थामा, किले के अन्दर शिवमंदिर में प्रतिदिन करते है पूजा
Asirgarh fort and Ashwathama story in Hindi : महाभारत के बारे में जानने वाले लोग अश्वत्थामा के बारे में निश्चित तौर पर जानते होंगे। महाभारत के कई प्रमुख चरित्रों में से एक अश्वत्थामा का वजूद आज भी है। अगर यह पढ़कर आप हैरान हो रहे हैं, तो हम आपको बता दें कि अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने निकले अश्वत्थामा को उनकी एक चूक भारी पड़ी और भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें युगों-युगों तक भटकने का श्राप दे दिया।
पिछले लगभग पांच हजार वर्षों से अश्वत्थामा भटक रहे हैं। ऐसा माना जाता है
की बुरहानपुर, मध्य प्रदेश स्तिथ असीरगढ़ किले की
शिवमंदिर में प्रतिदिन सबसे पहले पूजा करने आते है। शिवमंदिर में शिवलिंग पर
प्रतिदिन सुबह ताजा फूल एवं गुलाल चढ़ा मिलना अपने आप
में एक रहस्य है। हम यहां आपको महाभारत काल के अश्वत्थामा से जुड़ी वो खास बातें
बताने जा रहे हैं, जिनके बारे में
आपको शायद ही मालूम होगा।
अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य के
पुत्र थे
अश्वत्थामा महाभारतकाल अर्थात द्वापरयुग में जन्मे थे। अश्वत्थामा गिनती उस युग के श्रेष्ठ योद्धाओं में होती थी। वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र व कुरु वंश के राजगुरु कृपाचार्य के भानजे थे। गुरु द्रोणाचार्य ने ही कौरवों और पांडवों को शस्त्र विद्या में पारंगत बनाया था।
महाभारत के युद्ध के समय गुरु द्रोण ने हस्तिनापुर राज्य के
प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा। गुरु द्रोणाचार्य के
पुत्र अश्वत्थामा भी अपने पिता की भांति शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपुण थे। महाभारत के यौध के
दौरान पांडवो की सेना को पितापुत्र की जोड़ी ने छिन्न – भिन्न
कर दिया था|
पांडव सेना को हारता हुआ देख श्रीकृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध करने के लिए युधिष्ठिर से कूटनीति का
सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत युद्धभूमि में यह बात फैला दी गई कि
अश्वत्थामा मारा गया है।
अश्वत्थामा श्री कृष्ण ने दिया था
श्राप
जब द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से
अश्वत्थामा की मृत्यु की सत्यता जाननी चाही तो युधिष्ठिर ने जवाब दिया कि अश्वत्थामा
हतो नरो वा कुंजरो वा (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन मुझे
पता नहीं कि वह नर था या हाथी)। यह सुन गुरु द्रोण पुत्र मोह में शस्त्र त्याग कर
किंकर्तव्यविमूढ़ युद्धभूमि में बैठ गए और उसी अवसर का लाभ उठाकर पांचाल नरेश
द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने उनका वध कर दिया।
पिता की मृत्यु ने अश्वत्थामा को विचलित
कर दिया। महाभारत युद्ध के पश्चात जब अश्वत्थामा ने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध
लेने के लिए पांडव पुत्रों का वध कर दिया तथा पांडव वंश के समूल नाश के लिए उत्तरा
के गर्भ में पल रहे अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र चलाया, तब भगवान श्री कृष्ण ने परीक्षित की
रक्षा कर दंड स्वरुप अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकालकर उन्हें तेजहीन कर दिया
और युगों-युगों तक भटकते रहने का शाप दिया था।
पागल हो जाता है देखने वाला
कहा जाता है कि असीरगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश
के ही जबलपुर शहर के गौरीघाट (नर्मदा नदी) के किनारे भी अश्वत्थामा भटकते रहते
हैं। स्थानीय निवासियों के अनुसार कभी-कभी वे अपने मस्तक के घाव से बहते खून
को रोकने के लिए हल्दी और तेल की मांग भी करते हैं। कई लोगों ने इस बारे में अपनी
आपबीती भी सुनाई। किसी ने बताया कि उनके दादा ने उन्हें कई बार वहां अश्वत्थामा को
देखने का किस्सा सुनाया है। तो किसी ने कहा- जब वे मछली पकडऩे वहां के तालाब में
गए थे, तो अंधेरे में उन्हें किसी ने तेजी से
धक्का दिया था। शायद धक्का देने वाले को उनका वहां आना पसंद नहीं आया। गांव के कई
बुजुर्गों की मानें तो जो एक बार अश्वत्थामा को देख लेता है, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है।
शिव मंदिर में करते है पूजा-अर्चना
किले में स्थित तालाब में स्नान करके
अश्वत्थामा शिव मंदिर में पूजा-अर्चना करने जाते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि वे
उतावली नदी में स्नान करके पूजा के लिए यहां आते हैं। आश्चर्य कि बात यह है कि
पहाड़ की चोटी पर बने किले में स्थित यह तालाब बुरहानपुर की तपती गरमी में भी कभी
सूखता नहीं। तालाब के थोड़ा आगे गुप्तेश्वर महादेव का मंदिर है। मंदिर चारो तरफ से
खाइयों से घिरा है। किंवदंती के अनुसार इन्हीं खाइयों में से किसी एक में गुप्त
रास्ता बना हुआ है, जो खांडव वन (खंडवा जिला) से होता हुआ
सीधे इस मंदिर में निकलता है।
इसी रास्ते से होते हुए अश्वत्थामा मंदिर
के अंदर आते हैं। भले ही इस मंदिर में कोई रोशनी और आधुनिक व्यवस्था न हो, यहां परिंदा भी पर न मारता हो, लेकिन पूजा लगातार जारी है। शिवलिंग पर
प्रतिदिन ताजा फूल एवं गुलाल चढ़ा रहता है।बुरहानपुर के इतिहासविद डॉ. मोहम्मद शफी
(प्रोफेसर, सेवा सदन महाविद्यालय, बुरहानपुर) ने बताया कि बुरहानपुर का
इतिहास महाभारतकाल से जुड़ा हुआ है। पहले यह जगह खांडव वन से जुड़ी हुई थी।
किले का नाम असीरगढ़ यहां के एक प्रमुख चरवाहे आसा अहीर के नाम पर रखा गया
था। किले को यह स्वरूप 1380 ई. में फारूखी वंश के बादशाहों ने दिया
था।
जहां तक अश्वत्थामा की बात है, तो शफी साहब फरमाते हैं कि मैंने बचपन से
ही इन किंवदंतियों को सुना है। मानो तो यह सच है न मानो तो झूठ।
अष्ट चिरंजीवियों में से एक हैं
अश्वत्थामा
महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक
अश्वत्थामा थे। ये कौरवों व पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे। हनुमानजी
आदि आठ अमर लोगों में अश्वत्थामा का नाम भी आता है। इस विषय में एक श्लोक प्रचलित
है-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
कैसे पहुंचें-
असीरगढ़ किला बुरहानपुर से लगभग 20
किमी की
दूरी पर उत्तर दिशा में सतपुड़ा पहाडिय़ों के शिखर पर समुद्र सतह से 750 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। बुरहानपुर खंडवा से लगभग 80 किमी दूर है। यहां से बुरहारनपुर तक जाने के लिए ट्रेन, बसें व टैक्सी आसानी से मिल जाती हैं।
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