Panhala Fort Kolhapur, पन्हाला किला कोल्हापुर
महाराष्ट्र का पन्हाला किला (जिसे पन्हालगढ, पन्हाला के नाम से जाना जाता है ( भारत के
महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के उत्तरपश्चिम से 20 किलोमीटर की दुरी पर पन्हाला में पन्हाला किला स्थित है।
इस किले के इतिहास मे बहुत ही बड़ा महत्व है इस किले ने इतिहास की बड़ी बड़ी लड़ाई को खुद देखा है ये किला सह्याद्री पहाड़ी श्रृंखला से गुजरते समय दिखाई पड़ता है जो महाराष्ट्र के आंतरिक बीजापुर से तटीय क्षेत्र तक जाने का प्रमुख व्यापार मार्ग है। इसके प्रमुख स्थान के कारण, ये डेक्कन में हुए कई लड़ाइयों का केंद्र था जिनमे मराठा, मुग़ल और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी शामिल थे, इनमे से सबसे प्रमुख लड़ाई पवन खिंड की थी। इस किले में कोल्हापुर क्षेत्र की रानी शासक, ताराबाई ने अपने शासनकाल के प्रारंभिक वर्षो को बिताया था। किले के कुछ भाग और उसके भीतर बनी कई संरचना आज भी मौजूद है।
पन्हाला
किला का इतिहास :
इस किले का
निर्माण 1178 और 1209 CE के बीच करवाया गया था जो शिलाहार शासक भोज
II द्वारा बनाए 15 किलो (अन्यों में बावदा, भुदारगढ, सतारा और
विशालगढ़ में से एक है। यहाँ एक कहावत मानी जाती है
“कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली” जो इस किले से जुडी हुई है। सतारा में एक
तांबे की प्लेट पायी गयी थी जिसके द्वारा पता चलता है की राजा भोज ने अपने दरबार
को 1191–1192 CE के बीच पन्हाला में आयोजित किया था। सं 1209–10 के आस पास, राजा भोज सिंघाना (1209–1247) से पराजित हो गए, जो देवगिरी यादवो में सबसे शक्तिशाली था।
उसके तत्पश्चात ही किले का नियंत्रण यादवो के अधीन चला गया। किले पर की गयी
शिलालेख के मुताबिक सं 1376 में किले के दक्षिण पूर्व का नभापुर के साथ समझौता कर लिया गया।
उस समय ये बीदार के बहमानियो की चौकी थी। महमूद गवान जो बहुत शक्तिशाली शासक थे ने सं 1469 की वर्षा ऋतू के दौरान यहाँ डेरा डाला था। सं 1489 में, बीजापुर में आदिल शाह साम्राज्य की स्थापना के दौरान पन्हाला बीजापुर के अंदर आता था जिसके कारण ये भी उन्ही के राज्य का हिस्सा बन गया। उसके पश्चात उन्होंने परम्परा के मुताबिक किले की मजबूत प्राचीरों और प्रवेश द्वारा का निर्माण करवाया, इस निर्माण कार्य को समाप्त होने में कई सौ वर्ष लग गए थे।
पन्हाला किला शिवाजी महाराज के अधीन
सं 1659 में, बीजापुर के सेनापति अफ़ज़ल खान की मृत्यु के
पश्चात शिवाजी महाराज ने बीजापुर से पन्हाला को वापस ले लिए। मई 1660 में, बीजापुर के आदिल शाह II (1656–1672) ने किले को शिवाजी से वापस लेने का प्रयास करने के लिए उन्होंने अपनी सेना को
सिद्दी जौहर के आदेश पर पन्हाला में घेरेबंदी के लिए भेज दिया। शिवाजी ने लड़ाई की
और वे किला वापस प्राप्त नहीं कर पाये। ये घेराबंदी 5 महीनों तक चली थी, जिसके अंत तक किले के सभी खाद्य और पेय
वस्तुएं समाप्त हो चुकी थी और शिवाजी महाराज बंधी बनने के कगार पर थे।
इन परिस्थितियों
में, शिवाजी महाराज ने फैसला किया की यहाँ से भागना ही एकमात्र विकल्प है अपने
प्राणो की रक्षा करने का। उन्होंने अपने विश्वस्त सेनापति बाजी प्रभु देशपांडे और
सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी के साथ इक्कट्ठा हुए और 13 जुलाई 1660 को, अर्ध रात्रि के अँधेरे में विशालगढ़ के लिए
रवाना हो गये। बाजी प्रभु और एक शिवा काशिद नाम का एक नाइ जो दिखने में बिखुल
शिवाजी जैसा प्रतीत होता था ने अपने शत्रुओ को उस नकली शिवाजी में उलझाए रख और
उन्हें ऐसा दिखाया जैसे वो वास्तविक शिवाजी महाराज ही है। इससे आगामी लड़ाई में, एक हज़ार शक्तिशाली सैनिकों की तीन तिमाही और स्वयं बाजी प्रभु की भी मृत्यु
हुई थी। इसके पश्चात ये किला आदिल शाह के नियंत्रण में चला गया। उसके पश्चात सं 1673 में शिवाजी महाराज ने इस किले पर स्थाई रूप से कब्ज़ा कर
लिया।
शिवाजी के पुत्र
और इस सिंहासन के उत्तराधिकारी संभाजी अपने पता के विरुद्ध चले गए जिसके
परिणामस्वरूप शिवाजी ने संभाजी को पन्हाला किले में कैद कर लिया। 13 दिसंबर 1678 में वो अपनी पत्नी के साथ यहाँ से भागने
में सफल हो गया और भोपालगढ़ पर आक्रमण कर दिया। 4 दिसंबर 1979 को वो अपने पिता से संधि करने पन्हाला वापस आया परन्तु ठीक
उसे पश्चात 4 अप्रैल 1680 में उनकी मृत्यु
हो गयी। सं 1678 में शिवाजी की शक्ति अपने शिखर पर थी, उस दौरान पन्हाला में 15,000 घोड़े और 20,000 सैनिक थे जिनके मुख्य दरवाज़े चार दरवाज़े थे।
पन्हाला
किला कोल्हापुर के शासकों के अधीन :
शिवाजी की मृत्यु होने के पश्चात संभाजी ने अपने सौतेले भाई राजाराम को अपदस्थ करने के लिए पन्हाला की चौकी को उसका समर्थन करने के लिए समझाया और खुद मराठा साम्राज्य का छत्रपति बन गया। सं 1689 में, औरंगजेब के सेनापति तक़रीब खान ने संभाजी को संगमेश्वर में कैद कर लिया और मुग़लो ने इस किले पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। हालांकि सं 1692 में विशालगढ़ के किले की मराठा चौकी के सेनापति परशुराम पंत प्रतिनिधि के नेतृत्व में काशी रंगनाथ सरपोतदार ने किले पर पुनः कब्ज़ा कर लिए। सं 1701 में, आखिरकार पन्हाला को औरंगजेब को सौंप दिया गया। 28 अप्रैल 1692 को, मुग़ल साम्राज्य ने मशहूर अंग्रेजी राजदूत Sir William Norris का पन्हाला किले में स्वागत किया। Norris ने औरंगजेब से की गयी इस बात चीत में 300 पाउंड्स व्यय कार दिए परन्तु यहाँ किस बात की चर्चा की गयी थी किसी को नहीं पता। इसके कुछ माह पश्चात रामचन्द्र पंत अमात्य के नेतृत्व में मराठा सैनिकों ने इस किले पर पुनः कब्ज़ा कर लिया।
सं 1693 में, औरंगजेब ने एक बार फिर इस किले पर आक्रमण
किया। इसके कारण एक बार लम्बी घेराबन्दी के दौरान राजाराम अपनी 14 वर्षीय पत्नी ताराबाई को पन्हाला में छोड़कर स्वयं भिखारी का रूप धारण कर जिंजी
किले की ओर भाग निकले। जब औरंगजेब राजाराम को ढूंढ रहा था ताराबाई ने अपने पति से
दोबारा मिलने से पहले के पांच वर्ष पन्हाला में व्यतीत किया। उनके जीवन की इस अवधि
के दौरान, ताराबाई ने किले की सभी प्रशासनिक गतिविधियों पर ध्यान दिया, विवादों का समाधान किया और जनता से सम्मान प्राप्त किया। पन्हाला में व्यतीत
किया गए इस समय ने उन्होंने दरबारी मामलों के लिए अनुभव मिला और अधिकारियो को
सहायता प्रदान करने का भी अनुभव प्राप्त हुआ। इस के पशकत राजाराम ने जिंजी से एक
शक्तिशाली सैनिकों की एक टुकड़ी यहाँ भेज दी और सं 1693 में पन्हाला
मराठाओ के अधीन आ गया।
सं 1700 में, राजाराम की मृत्यु हो गयी और उनके ताराबाई
से उत्पन्न हर 12 वर्षीय पुत्र शिवाजी II को उनका स्थान दे दिया गया। सं 1705 में, ताराबाई ने अपने पुत्र शिवाजी II को स्वतंत्र
साम्राज्य और पन्हाला पर स्वतंत्र राज्य करने की स्थापना करने पर जोर दिया। सं 1708 में ताराबाई के सतारा के शाहूजी की साथ हुए युद्ध में, शाहू ने पन्हाला पर कब्ज़ा कर लिया और ताराबाई रत्नागिरी के मालवान की भाग गयी।
उसके थोड़े समय पश्चात सं 1709 में, ताराबाई ने
पन्हाला पर पुनः कब्ज़ा कर लिया और एक पृथक राज्य (कोल्हापुर) की स्थापना की और उसकी राजधानी पन्हाला को बनाया। ये सत्ता सं 1782 तक निरंतर रही।
ताराबाई की
मृत्यु के पश्चात, राजाराम की दूसरी पत्नी राजसबाई से उत्पान
हुए पुत्र संभाजी II इस सिंहासन के उत्तराधिकारी बने। बिना
किसी विवाद के उनकी मृत्यु 1760 में हो गयी। उनकी पत्नी जीजाबाई ने कंवात
के साहजी भोसले के पुत्र को गोद ले लिया। जिस समय जीजाबाई ने उन्हें गोद लिया था
वे नाबालिक थे इसलिए उनके बालिग होने तक उन्होंने यहाँ के शासक की भूमिका निभाई।
पन्हाला की तबाही को रोकने के लिए वे किले में मौजूद महाकाली के मंदिर आई और देवी
काली को प्रसन्न करने के लिए पारंपरिक तौर से मनुष्य के खून की आहुति दी। ये
कार्यक्रम सं 1772 उनकी मृत्यु तक चलता रहा। यहाँ एक स्तंभ
है जो इन बलिदानो का प्रमाण है
जिसे काली स्तम्भ के नाम से भी जाना जाता है।
सं 1782 में, कोल्हापुर सरकार की गद्दी को पन्हाला से
कोल्हापुर स्थानांतरित कर दिया गया। सं 1827 में, शाहूजी I (1821–1837) के शासन काल के दौरान पन्हाला और उसके
पड़ोसी किले पवनगढ़ को ब्रिटिश राज को सौंप दिया गया।
प्रमुख विशेषताएं
1. दुर्ग और गढ़
2. आधार बावड़ी
3. कालावन्तिचा महल
4. अम्बरखाना
5. धर्मा कोठी
5. सज्जा कोठी
7. तीन दरवाज़ा
8. वाघ दरवाज़ा
9. राजदिंदी गढ़
10. मंदिर और स्मारके
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